s Swami Keshwanand Samiti Charitable Trust

राष्ट्र भाषा प्रचार

फाजिल्का-अबोहर के इलाके में उन दिनों प्रान्त की सरकारी भाषा उर्दू का बोलबाला था, हिन्दी भाषा के पढ़ने-पढ़ाने में किसी को कोई रुचि नहीं थी। वहां के गांवों की सामाजिक अवस्था भी उन रेगिस्तानी गांवों जैसी ही थी जहाँ केशवानन्द की आयु के प्र्रथम 16 वर्ष बीते थे। अतः उस क्षेत्र के ग्रामीण समाज में व्याप्त अंधविश्वासों और अर्थहीन रूढ़ियों की जड़ खोदने के लिए साधु केशवानन्द ने आवश्यक समझा कि उन्हें हिन्दी भाषा का ज्ञान देकर भारतीय संस्कृति के सही रूप से परिचित कराया जावे। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए उन्होंने सन् 1911 में साधु आश्रम (गुरू-डेरे) में एक पुस्तकालय-वाचनालय का आरम्भ कर दिया, जहां हिन्दी की पुस्तकें और समाचार- पत्र मंगाए जाते थे। शहर के आदमी उनसे लाभ उठाते और हिन्दी का स्वतः प्रचार होता। वे स्वयं हिन्दी-पुस्तकों की गठरी बांधकर आस-पास के गांवों में ले जाते और लोगों को उन्हें पढ़ने के लिए प्रेरित करते। सन् 1912 में उन्होंने आश्रम में एक संस्कृत पाठशाला भी आरम्भ कर दी। उन्हें मठाधीश बने रहकर पैर पुजाने, आशीष देने का कर्मकाण्डी जीवन पसन्द न आया, अतः सन् 1916 में उन्होंने अपनी फाजिल्का की गुरुगद्दी का त्याग करके अपने हिन्दी-प्रचार-कार्य को आगे बढ़ाने के निमित अबोहर में ‘‘नागरी प्रचारणी सभा’’ की स्थापना की। सन् 1924 में उन्होंने इलाके में व्यापक रूप से हिन्दी का प्रचार करने के लिए सार्वजनिक सहयोग से ‘‘साहित्य सदन अबोहर’’ नाम की संस्था का श्रीगणेश किया। साहित्य सदन अबोहर द्वारा ‘‘चल पुस्तकालय’’, केन्द्रीय पुस्तकालय-वाचनालय, हिन्दी की ग्रामीण पाठशालाओं, ‘‘दीपक प्रेस’’ लगाकर हिन्दी मासिक ‘‘दीपक’’ और ग्रामोपयोगी सत्साहित्य का प्रकाशन आदि योजनाओं से इलाके में हिन्दी के पठन-पाठन को बढ़ावा दिया गया। साहित्य सदन में ही हिन्दी साहित्य-सम्मेलन प्रयाग, राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा और पंजाब विश्व-विद्यालय की हिन्दी परीक्षाओं के केन्द्र स्थापित कराए गए और हिन्दी विद्यालय प्रारम्भ कर उन परीक्षाओं की तैयारी का प्रबन्ध किया गया। इन विभिन्न परीक्षाओं में प्रतिवर्ष हजारों की संख्या में छात्र-छात्राएं प्रविष्ट होते थे। साहित्य-सदन के प्रबन्ध में इलाके के झूमियांवाली, मौजगढ़, जंडवाला, हनुमन्ता, भंगरखेड़ा, पंचकोसी, रामगढ़, रोहिड़ांवाली, चूहड़ियां वाला, कुलार, सीतो, बाजीदपुर, कल्लरखेड़ा, पन्नीवाला, माला आदि 25 गांवों में हिन्दी की प्राथमिक पाठशालाएं चलती थीं, जिनमें प्रौढ़-शिक्षा का भी प्रबन्ध था। साहित्य-सदन अबोहर में ही सन् 1933 में नौवां पंजाब प्रातीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन और सन् 1941 में अखिल भारतवर्षीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन का तीसवां अधिवेशन अत्यन्त सफलता-पूर्वक सम्पन्न हुए। राष्ट्र-भाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार की इन गतिविधियों का सुपरिणाम यह हुआ कि सन् 1947 में देश-विभाजन के समय फाजिल्का तहसील, जिसमें अबोहर भी शामिल था, बड़े-बड़े प्रभावशाली मुसलमान जागीरदारों, काश्तकारों और व्यापारियों की पर्याप्त आबादी होते हुए भी, हिन्दी-भाषी और हिन्दू-सिख बहुल मानी जाकर पाकिस्तान में जाने से बच सकी और उसके साथ लगती छोटी-छोटी मुस्लिम रिसायतें जलालाबाद और ममदोट भी भारतवर्ष के हिस्से में आ गईं।